कोरोना संक्रमण के फैलाव को रोकने के मद्देनज़र हुए सामाजिक बंदी के बाद बड़े शहरों से मज़दूर बड़ी संख्या में अपने गांव-क़स्बों में वापस आ रहे हैं. चूंकि कोरोनावायरस का फैलाव और संक्रमण ज़्यादा भीड़ के एकत्रित होने पर कई गुना ज़्यादा हो सकता है, इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों का प्रयास था कि किसी भी तरह के पलायन को तात्कालिक रूप से रोक दिया जाए. इसी कारण से सड़क, रेल, और हवाई यातायात को पूरी तरह से बंद कर दिया गया है.
सार्वजनिक स्वास्थय को लेकर यह अहम फैसला है और इसका कोई विकल्प नहीं था, मगर भारत के वर्तमान सामाजिक-आर्थिक संरचना में सामाजिक बंदी का कदम आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए कई तरह के मुश्किलों को पैदा करने वाला है, जिसका दुष्परिणाम आने वाले महीनों में ज़्यादा व्यापक और स्पष्ट हो जाएगा.
भारत में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर प्रति दिन औसतन 500 रुपए की कमाई कर लेते हैं. फ़र्ज़ कीजिए कि उनकी महीने के तीसों दिन कमाई हो रही है तब भी एक मज़दूर महीने में 15,000 रुपए से ज़्यादा कमाई नहीं कर पाता है. किसी भी शहर में रहने-खाने के खर्च में अगर कम कम से 4000 रुपए और अन्य अनियोजित ख़र्च के लिए 1000 रुपए अगर वेतन से घटा दिया जाए तो उसके बाद बमुश्किल 8-10 हज़ार रूपए बचते हैं, जिसके सहारे गांव-क़स्बे में रहने वाला उसका परिवार जीवन यापन करता है.
बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में प्रजनन दर 3.3 है और उत्तर प्रदेश में 3 है. इसका मतलब है कि इन राज्यों एक दम्पति औसतन कम से कम तीन बच्चे पैदा करता है. पत्नी, बच्चे, और परिवार के अन्य सदस्यों को मिलाकर यह संख्या कम से कम 6 या 7 होती है जो शहरों से भेजे जा रहे 8-10 हज़ार रूपए पर अपना जीवन गुज़र करती है. इसी पैसे में शिक्षा, स्वास्थ्य, खाने-पीने से लेकर हर तरह का इंतज़ाम करना होता है. अनाज वितरण से लेकर मिड डे मील और वृद्धा पेंशन में व्याप्त घूसखोरी का अगर हिसाब किया जाए तो सभी सरकारी योजनाओं को सम्मिलित करने के बाद भी प्रति परिवार को 1500 रुपए से ज़्यादा की राशि नहीं मिलती है.
राज्य के लगभग सभी प्रखंडों और अनुमंडलों में मौजूद सरकारी अस्पतालों की हालत का जायज़ा लिया जाए तो अधिकांश जगहों पर सरकारी स्वास्थ्य और दवाई वितरण सेवाएं न के बराबर हैं. इसलिए इन परिवारों की किसी भी तरह के स्वास्थ्य सेवाओं के लिए महंगे और कई दफ़ा नकली निजी डॉक्टरों के ऊपर निर्भरता रहती है. आमतौर पर किसी बड़ी बीमारी के इलाज या ऑपरेशन के लिए 30-40 प्रतिशत सालाना की दर से क़र्ज़ लेना पड़ता है. शादी-विवाह, छोटे व्यवसाय, चिकित्सा, और घर बनाने के लिए पहले से लिए गए क़र्ज़ का औसत दर कम से कम 24-36 प्रतिशत सालाना होता है और इसकी किश्त नियमतः हर महीने देनी होती है. इन ख़र्चों को अगर जोड़ा जाए तो पता चलेगा कि अधिकांश मज़दूरों का घर उनकी शहरी कमाई में बडी मुश्किल से चल पाता है और ख़र्च और कमाई के फ़ासले को पूरा करने के लिए समय-समय पर फिर से क़र्ज़ लेना पड़ता है. बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों से पलायन करके शहरों में मज़दूरी करने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति मोटे तौर पर यही है.
ऐसे में कोरोना संक्रमण के प्रकोप के वजह से जब मज़दूरों को काम मिलना पूरी तरह से बंद हो गया तो उनके लिए वापस अपने गांव जाना ज़रुरी हो गया. भले शहरों में उन्हें ख़ुद खाने का राशन मिले या न मिले. मुद्दा राशन और खाने भर का था ही नहीं. मसला सिर्फ यह नहीं था की शहर में उनका बिना काम के गुज़र-बसर नहीं हो सकता था, मसला ये भी था कि कमाई के बिना अगले महीने से गांव में राशन के साथ साथ किश्त अदायगी और अन्य ख़र्चों के लिए बिलकुल भी पैसे नहीं होंगे. गांव पहुंचकर वह या तो कम रेट पर मज़दूरी कर लेंगे या फिर निजी संपर्क के लोगों से भविष्य में रक़म अदायगी के बदले कुछ और पैसे ले लेंगे. साथ ही उन्हें यह अच्छे से समझ आ रहा था कि महामारी और सामाजिक बंदी के समय महिलाओं, बच्चों, और बूढ़ों को चिकित्सीय सहयोग मिलना कठिन होगा.
मज़दूरों के वापसी को लेकर हुए सरकारी बद-इंतज़ामी को लेकर कई तरह के टिपण्णी हो रहे हैं. अधिकांश लोगों और शहरी पत्रकारों की समझ यह है कि अगर मज़दूरों के रहने खाने का व्यापक इंतज़ाम कर दिया जाता तो इतनी अफरा-तफरी नहीं मचती. मगर शायद उन्हें यह समझ नहीं है कि मज़दूरों का आर्थिक चक्र बहुत तेज़ी से घूमता है और कुछ हफ़्तों तक कमाई रूकने के बाद उनके परिवार कई साल पीछे चले जाते हैं. इससे विशेष रूप से मजदूरों के परिवार का स्वास्थ्य और उनके बच्चों की बौद्धिक क्षमता व्यापक पैमाने पर प्रभावित होती है. इस मनोवैज्ञानिक डर के वजह से मज़दूर कठोर से कठोर कदम उठाते हैं. जैसे- सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा या सरकारी कर्मचारियों के दबाव में चुपचाप केमिकल स्नान करना. इसी मनोवैज्ञानिक असहजता, डर और खुद को लेकर पनप रहे निष्ठुरता के वजह से दिहाड़ी मज़दूर ट्रेनों में बोरियों की तरह ठुंसा कर बीस-बीस घंटे मल मूत्र रोक कर यात्रा करते हैं. इस बात को अमूमन महसूस करना आसान होता है मगर समझाना कठिन और जिसमें सहानुभूति का भाव न हो वह इसे कभी नहीं समझ पाएगा.
कोरोना के उठा-पठक में जो आज हो रहा है और जिसको लेकर कई लोग विचलित हैं, असल में वह आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के साथ सामान्य दिनों में भी होता है. बस उसका प्रारूप बदल जाता है. जैसे, ग़रीब वर्ग के घरों में बनाए जाने वाले खाने के तेल में “Palm Oil” और केमिकल की भारी मिलावट होती है जिसकी वजह से ग़रीबों में दिल, पेट या गुर्दे की बीमारी से लेकर कैंसर तक का भारी प्रकोप फैला रहता है. भारत में Palm Oil का सालाना आयात कई हज़ार करोड़ का है और इस साल कुल 9.75 करोड़ मीट्रिक टन आयात सिर्फ भारत में हुआ है! Palm Oil अधिकांश तौर पर खुले में बिकने वाले (बिना पैकेट) खाने के तेल में मिलावट के लिए इस्तेमाल होता है. Palm Oil के ज़्यादा इस्तेमाल से कितनी बीमारियां होती है यह बात World Health Organization (WHO) हर साल अपनी स्वास्थ्य विज्ञप्ति में बताता है.
दिहाड़ी मज़दूरों के घरों में असामयिक मौतों की आवृति मध्यम वर्गीय या कुलीन परिवारों से कई गुना ज़्यादा है. इस मनोवैज्ञानिक डर से आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग में प्रजनन दर ज़्यादा रहता है. जन स्वास्थ्य के इन मुद्दों को लेकर बुनियादी समझ तभी बनेगी, जब मज़दूरों के घरों में बनने वाले पदार्थों का रासायनिक विश्लेषण किया जाए और पता किया जाए कि इसमें मिलावट का अनुपात और स्तर कितना है. छोटे शहरों-क़स्बों में कैंसर से लेकर दिल और गुर्दे की बीमारी से संबंधित दवाइयों की खपत और संबंधित ऑपरेशन का कुल जनसंख्या के दर से शहरों के मुक़ाबले क्या अनुपात है. मगर सरकारी संगठन से लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य के ऊपर रिसर्च करने वाले विश्वविद्यालय इस तरह का शोध न के बराबर करते हैं.
भारत के अधिकांश राज्यों में ग़रीब मज़दूर की ज़िंदगी का स्तर कितना ख़राब है यह किसी भी पढ़े-लिखे पत्रकार को समझाने की ज़रुरत नहीं है. इंदिरा आवास, शौचालय निर्माण, वृद्धा पेंशन, मिड डे मील, और स्वास्थ्य बीमा योजनाओं से उनके जीवन में कोई कायाकल्प नहीं हुआ है, जिसकी वजह से उनकी भविष्य की पीढ़ी मज़दूरी के अलावा कोई और काम करेगी. मज़दूरों को इसकी ख़ूब समझ है कि वह उच्च और मध्यम वर्ग के अगली पीढ़ी के लेबर फोर्स के इंतज़ाम के लिए सिर्फ एक फैक्ट्री भर है. इसलिए वह आम जिंदगी को लेकर इस तरह से संजीदा नहीं हैं जिस तरह से हम और आप हैं. अधिकांश आर्थिक-सामाजिक रूप से अति पिछड़े लोगों में इस सोच की संभावना तक नहीं है कि उनके मुक़द्दर में इससे कोई और बेहतर ज़िंदगी हो सकती है. मड़ई में तरकारी-भात खाना ‘नॉर्मल’ है और मिड डे मील में बच्चों के लिए एक अदद अंडे का आगमन ‘न्यू नॉर्मल’.
कोरोना जैसे महामारी से निबटने के लिए मध्यम और कुलीन वर्ग को यह समझना होगा कि इसका कारगर उपाय तभी हो पाएगा जब ज़िला, प्रखंड और पंचायत स्तर पर सरकारी स्वास्थ्य एवं शिक्षा व्यवस्था सही मायने में बिना भ्रष्टाचार के काम करने लगे. जहां ज़रुरत पड़ने पर बड़े पैमाने पर लोगों की जांच हो सके और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए परहेज़ और विधि व्यवस्था की समझ पाठ्यक्रम का हिस्सा बनें. साथ ही, बेरोज़गार लोगों को हर महीने इतनी राशि मिले कि परिवार का न्यूनतम स्तर पर गुज़र-बसर हो सके. अगर ऐसा नहीं हुआ तो शायद आने वाले समय में बंद कमरे में लिखे जा रहे पत्रकारों के मनगढ़ंत रिपोर्ट और आत्मकेंद्रित नेताओं-नौकरशाहों के नीतिगत प्रपंच जन-जीवन को बर्बाद होने से बचा नहीं पाएंगे.
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